अर्चना : हजारों के लिये एक प्रेरणा..

26 Jun 2020 10:00:00

यूं तो जानवर भी अपना पेट भरा करतें हैं

पर इंसान है वो जो औरों के लिये जीतें है

जरुरी नही कि हर पल आपकी जुबां पर रब का नाम आए

इंसान तो वो है जो औरों के काम आए......



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दोस्तों इस दुनियां मे बहुत से ऐसे लोग है जो जीवन में कठिनाइयों के होने के बाद भी न केवल उन पर मात करके अपना जीवन खुशहाल बनाते है साथ ही अपने आस-पास अपने ही तरह के लोगों के जीवन में भी उजाला लाते है.....

चलिये आज जानते है ऐसी ही एक रियल लाईफ हीरो की कहानी.......


जरा सोचिये कि किसी सुबह आपकी नींद खुले और आप महसूस करें कि आपके शरीर का 90% हिस्सा काम नही कर रहा????

या आपके पैर में फ्रेक्चर हो जाये और आपको बिस्तर पर ही पडे रहना है ये पता चले… मुश्किल है ना बहुत..... पर एक इंसान है जो इन सब मुश्किलों से ना केवल लडती आई है बल्कि अपने साथ औरों को भी ऐसी समस्याओं से निपटने के लिये तैयार कर रही है..... चंद्रपुर की रहने वाली अर्चना मानलवार जो कि स्वयं 90% दिव्यांग होने के बावजूद आज अपने ही जैसे कई दिव्यांगजनों के जीने का सहारा बनी हुई है।

जन्म के समय बिलकुल स्वस्थ अर्चना को दूसरे ही वर्ष में पोलियो जैसी बीमारी ने ग्रस लिया, उनके पैरों ने काम करना बंद कर दिया...माता-पिता ने काफी इलाज किये और उनके अथक प्रयासों से अर्चना सहारा लेकर चलने लगी पर पैरों मे जान अब भी नही थी....कोशिशें जारी थी.....

अब उन्हें समझ आ चुका था कि वे बाकी बच्चों की तरह नही है, बहुत बुरा लगता था....रोना आता था....चिढ होती थी......जब घर के सभी बाहर से ताला बंद करके शादी में जाते तो अर्चना अकेले पडे-पडे सोचती कि ऐसा मेरे ही साथ क्यूं हुआ...... पर उनकी सुरक्षा कि दृष्टी से यही उचित था, वो बार बार विचार करती कि मै अच्छी होती ,चल पाती तो मुझे भी सब साथ लेकर जाते |

स्कूल जाने की जि़द और पढने का ज़ज्बा उन्हे घर पर नही रोक पाया..... पर एक बार फिर वही...... अपनी दिव्यांगता पर ताने... छींटाकशी और बेवजह की बातें...... ये सब दिल तोड देने वाला था...... हर जगह या तो दया.....या सहानुभूती.....या बेचारा होने की भावना...... सब कुछ पीडादायक था.... |

स्कूल में दिव्यांगो के लिये कोई सुविधा नही थी, दिव्यांग जनो के लिये शासन में अलग से नियम होते है उनको सुविधाये मिलती है ये वहा अधिकतर लोग नही जानते थे, वो अपनी एक सहेली के साथ स्कूल जाती पर उनको ना ठीक से खडे होते आता था ना ही चलते........एक पैर से जितना चल पाती उतना ही पर स्कूल या बाकी प्रशासन दिव्यांगजनो के लिये ज़रा भी चिंतित नही था , ना कोई रैंप था ना व्हीलचेयर और ना ही कोई लाभ दिलाने वाली योजना......

इस तरह अर्चना का बचपन बहुत ही कठिनाइयों और परेशानियों से भरा था.... जितना प्यार उनके घरवाले उनसे करते थे उतनी ही हीनभावना समाज और बाहरी वातावरण में थी। घरवालो के अलावा उनके दोस्त, आस पास रहने वाले और पडोसियो ने उनकी हमेशा मदद की और उन्हे प्यार किया, उनका इलाज शुरू था लगातार होने वाला दर्द , उस पर हर तरह के उपचार , दवाईयां , कसरत, व्यायाम, मालिश, बैसाखी का सहारा.....और भी बहुत कुछ जो उन्हे सहना पडा वो सहनशीलता के परे था.....उनके बेजान पैर और किसी भी तरह से उन्हे ठीक करने की जद्दोजहद ये सब बहुत ही ऊबाऊ और थकाने वाला था.....उससे होने वाले दर्द की तो हम कल्पना ही नही कर सकते, ये सब केवल शरीर तक सीमित नही था ये आघात अर्चना के कोमल मन को भी नष्ट कर रहे थे.......

पर उनके माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्यों ने हार नही मानी..... हर प्रकार से प्रयत्न करते रहे.....

पर कुछ समय बाद अर्चना की पीठ में तेज़ दर्द उठने लगा, उनकी रीढ की हड्डी क्षतिग्रस्त हो रही थी पर उनके माता-पिता इस दर्द का कारण नही समझ पा रहे थे , फिर कुछ दिनों बाद उन्हे नागपुर ले जाने की सलाह दी गयी जहां 12 वर्ष की आयु में अर्चना को चिकित्सक के परामर्श से ऑपरेशन करने कहा गया और वो उनके जीवन का सबसे बुरा फैसला साबित हुआ.....

ऑपरेशन के बाद अर्चना को होश आया तो उन्होने पाया कि उनके शरीर का 90% भाग पत्थर जैसा हो गया और अब वो एक मांस का टुकडा बनकर रह गयी है........ना वो हिल पा रही थी....ना ही कोई sensention हो रहा है, यहां तक कि वे टॉयलेट जाने को भी नही जान पा रही थी......उनके शरीर पर से उनका नियंत्रण जा चुका था और वो पूरी तरह अपाहिज हो गयी थी।

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माता -पिता के पास इतना पैसा नही था कि वे अर्चना को किसी बडे हॉस्पिटल में रख पायें अतः उन्होने अर्चना को दिव्यांगजनो के लिये बने मातृसेवा संगठन में रखा गया जहां अलग-अलग प्रकार की दवाइयों और योग एवं व्यायाम के द्वारा इलाज किया जाता था। वे वहां एक साल तक रहीं पर एक दिन का गैप उनको वापस शून्य पर ले आता था, शरीर मे कोई विशेष सुधार नही था..... जितना थोडा बहुत सुधार हुआ वो डबल निमोनिया हो जाने के कारण वापस पहले की तरह हो गया...... उस जगह अर्चना ने जी-तोड प्रयत्न किये, उन्हे अपने इस हाल से बाहर आना था वो लगातार एक्सरसाईज करती, हर इलाज को अच्छे से करने देती चाहे कितना भी दर्द हो, साथ ही पढाई भी करती, इस तरह एक साल बीत गया पर उनको वो हासिल नही हुआ जो वे चाहती थी..... उन्होने वापस घर जाने का फैसला किया और अब वो सच को जान गई थी कि उन्हे ऐसे ही जीवन बिताना पडेगा |पर वो ना उदास हुई ना ही हार मान कर कोई गलत कदम उठाया.... लडती रहीं…

वापस आने के बाद अर्चना को और भी ज्यादा तकलीफ हुई, जो मिलने आता वो एक उपाय बताता, कोई मिट्टी लगता कोई पाठ-पूजा करवाता यहां तक कि झाड-फूंक, तंत्र-मंत्र हर तरह के उपचार चलने लगे जिससे उनकी शारिरिक अवस्था मे तो कोई परिवर्तन नही आया, पर मन तिल-तिल टूट रहा था, वो पढना चाहती थी, जीवन में कुछ करना चाहती थी पर अब वो संभव नही था, जो भी आता वो अर्चना की हालत देखकर आंसू बहाता और जाते-जाते पढाई ना करने की सलाह दे जाता....

घर में और भी तो बच्चें है , दो बहने और एक भाई... उनका पढना जरूरी है...... इस बिचारी की तो जिंदगी वैसे ही अंधकार में है , ऐसे भी वाक्य बोले गये, पर उनके घर के सदस्य कभी इन सब बातो को महत्व नही देते थे,वो लोगो कि इन बातो को अनसुना कर देते थे उनके लिये अर्चना का उनके साथ होना ही सबसे महत्वपूर्ण था, जब अर्चना चल नही पाती, तो उनके दोस्त, सहेली , भाई और अन्य सदस्य उन्हे गोद में उठा कर ले जाते पर उन्होने कभी भी अर्चना को उनकी शारीरिक स्थिती को लेकर कम नही समझा,


उनके माता-पिता ने कभी भी उन्हे बोझ नही माना, वे हमेशा कहते कि ये हमारी लडाका बेटी है जो चाहेगी वो करेगी, उसे कोई रोक नही पाएगा......


वो कहते है ना कि जब आप पूरे दिल से कोई काम करना चाहो तो कोई आपका रास्ता नही रोक पाता....

अर्चना के मन में पढने की आगे बढने की ऐसी ही लगन थी, उन्होने सोच लिया था कि अपने जीवन को ऐसे ही नही बिताना है, 7वी क्लास के बाद वो पढ नही पाई थी इसलिये अब उन्होने आगे की पढाई जारी करने का निश्चय किया, पर ये सफर और भी मुश्किल था, 10वीं की परीक्षा के लिये उन्होने फॉर्म भरा, बिना किसी की मदत लिये मन लगाकर खूब पढाई की, पर परीक्षा देना उससे कई गुना कठिन था क्यूंकि स्कूल में 90% दिव्यांगों के लिये कोई सुविधाएं नही थी। जैसे-तैसे परीक्षा खत्म हुई और वो अच्छे नंबर से पास हुई। अब वो निरंतर आगे बढ रही थी, जो भी उनसे मिलने आता वो हर किसी से केवल पढने के बारे में बात करती, जो प्रश्न उनके मन मे आते वो पूछती, राह मे आने वाली हर कठिनाई का सामना करती।


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चूंकि वो चल नही पाती थी इसलिये जमीन पर सरक कर यहां से वहां जाती, कभी-कभी परीक्षा हॉल में भारी दिक्कतों का सामना करना पडता , कई बार उनके पेपर अधूरे रह जाते क्यूंकि तीसरी मंजिल पर जाकर परीक्षा देनी होती थी, माता-पिता, भाई सब उनकी हरसंभव मदद करते पर बाहरी वातावरण में ऐसा उपेक्षित व्यवहार उनके मन को खिन्न कर देता था, कई बार सेंटर पर झगडे होते, दिव्यांगो के अधिकार की बात की जाती , पर वहां पर अधिकतर लोग दिव्यांगो के विशेष अधिकारो के बारे में जानते ही नही थे जो जनते वो अर्चना की मदद करते पर दिव्यांग भी आखिर इंसान ही होते है और उन्हे दया कि नही समान अधिकारों की आवश्यकता है, ये बात लोगो को समझाना बडा कठीन था, इन सब कठिनाइयों पर मात करते हुये अर्चना ने बारहवी की परीक्षा अच्छे मार्क्स से पास की, वो कॉलेज जाना चाहती थी पर रोजमर्रा के जीवन में उन्हे लाना ले जाना संभव नही था इसलिये घर पर ही रहकर पढना और बचे हुए वक्त में बच्चों को पढाना ये क्रम शुरू हुआ.......

कुछ ही समय में अर्चना ने एक कोचिंग सेंटर की शुरुवात की जहां वो 150 से अधिक बच्चों को पढाने लगी, अपनी तकलीफों को भूलकर अब वो खुद अपनी पढाई भी कर रही थी साथ ही बच्चों को भी शिक्षा प्रदान कर रही थी

इस तरह अर्चना ने अपना स्नातक फिर स्नातकोत्तर पूरा किया और अब वे Phd करना चाहती है। खुद की पढाई के साथ ही अपने एक पत्रकार मित्र कि सहायता से उन्होने "ज्ञानार्चना" नाम की एक संस्था की नींव रखी जिसमें वो विद्यार्थी जीवन और उनकी समस्याओं पर काम करने लगी..... धीरे-धीरे वो एक सामाजिक कार्यकर्ता बन चुकी थी और व्याख्यान , कार्यशाला इन माध्यमों से हर उम्र के विद्यार्थियों के प्रश्नों का समाधान करने लगी......

सब कुछ अच्छा हो रहा था अर्चना अपने मार्ग पर आगे बढ रहीं थी पर कहीं कुछ था जो उन्हे प्रेरित कर रहा था कि वो अपना मार्ग बदलें। उनके इस सफर मे ऐसे अनेक लोग मिले जिन्होने उनकी हर संभव सहायता की साथ ही साथ मार्गदर्शन भी किया, कई लोगो ने उनके चुने हुये इस मार्ग को आसन बनाने का प्रयास किया, वो जिन्हे लगता था कि एक दिव्यांग का जीवन भी सामान्य लोगो कि ही तरह महत्वपूर्ण होता है , उन सबने अर्चना को हर कदम पर साथ देकर अपने मुकाम को हासिल करने का प्रोत्साहन दिया, इस दौरान उनके जीवन में अनेक विद्यार्थी आए जिनमें से कई दिव्यांग भी थे, कुछ लडकियां भी थी जो अनाथ थी बेसहारा थी, उनको देखकर अर्चना के मन में ये बात आई कि उन्हे अपनी ही तरह के लोगों की सहायता करनी चाहिये, आगे बढने में उनकी मदद करनी चाहिये।

बस यही सोचकर उन्होने एक दिव्यांग महिला आश्रम(ज्ञानार्चना अंपग स्नेह) की स्थापना की।



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शिक्षा पूरी होने के साथ ही उन्हे ये एहसास होता गया कि एक दिव्यांग का जीवन आसान नही, विशेषतः लडकियों के लिये ये और भी कठिन होता है, समाज में और बाहरी वातावरण में उनको भारी उपेक्षा का सामना करना पडता है। इसी सोच के साथ अर्चना ने अपने ही जैसी दिव्यांग महिलाओं के लिये अपने प्रयत्नो से एक संस्था बनाई जिसमें उनके एक पत्रकार मित्र ने उनकी सहायता की |

इस आश्रम में आज 20 से अधिक दिव्यांग और निराश्रित लडकियां है जो मेहनत से काम करके अपना जीवनयापन कर रही हैं, सिलाई, बुनाई, बैग बनाना, और ऐसे ही कुछ रोजगार के साधन उन्हे वहां दिये गये है। आज वहां पर रहने वाली हर लडकी आत्मनिर्भर है वो किसी की दया की पात्र नही है।

अर्चना और उनके जैसे लोग एक प्रेरणास्थान है हमारे लिये जो बिना किसी की सहायता के कम से कम उपलब्ध साधनों मे से भी औरों के लिये इतना सब कर रहें है, अपनी कोचिंग सेंटर की पूरी कमाई इस आश्रम में लगा देने वाली और स्वयं 90% दिव्यांग होकर भी इस बीमारी को मात करने वाली अर्चना उदाहरण है सबके लिये जो जरा-जरा सी बात से परेशान हो जातें है, उम्मीद छोड देतें है या कोई गलत कदम उठा लेते है।

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अर्चना को अपने इस महान प्रयत्न के लिये अनेको पुरस्कार प्रदान किये गये। "सावित्रीची लेक" "स्वयंसिद्धा तेजस्विनी" "घे भरारी" "संवर्धनी" ऐसे अनेक उपाधियों और पुरस्कारों से उन्हे सम्मानित किया गया, साथ ही दिव्यांगजनो की अनेक संस्थाओं मे वे कमेटी मेंबर के रूप में कार्यरत है। आज उनके इस अनोखे काम के लिये अनेको समाचार पत्रो और आकाशवाणी में भी उनकी मुलाकात ली गयी, अर्चना उद्धव मानलवार दिव्यांग होते हुए भी परिपूर्ण है क्यूंकि इंसान वही है जो औरो के काम आता है।


आपको आपके आने वाले भविष्य के लिये ढेरों शुभकामनाएं |

- प्रगती गरे दाभोळकर


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