आनंदीबाई केवल चौदह वर्ष की थी जब उनके पहले बच्चे का जन्म हुआ। किंतु सही चिकित्सा सेवाएँ उपलब्ध न होने से केवल दस दिनों में ही बच्चे की मृत्यु हो गई। इस घटना ने दोनों, आनंदीबाई और गोपालराव को, सदमा पहुँचाया। आनंदीबाई ने अपने दुःख की खाई में न जाकर कुछ करने का निर्णय लिया। पति गोपालराव का शिक्षा के प्रति पूर्ण समर्थन होने से आनंदीबाई ने चिकित्सा का मार्ग चुना। गोपालराव ने आनंदीबाई का दाखिला मिशनरी स्कूलों में करने का प्रयास किया लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लगी। ऐसे में, वे कलकत्ता, अभी का कोलकाता, शहर आ पहुंचे। यहाँ आनंदीबाई ने संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओँ में बात करने और पढने की शिक्षा ली।
अपनी पत्नी को डॉक्टर बनाने की चाह में गोपालराव ने आखिर अमरीकी मिशनरी को ख़त लिखे और उनका यह ख़त न्यू जर्सी के थियोडीसिया कारपेंटर के पास जा पहुँचा। आनंदीबाई और गोपालराव की लगन देखकर थियोडीसिया ने उनकी मदद करने की ठानी और जून १८८३ में आनंदीबाई थियोडीसिया के घर पहुंची तथा अमेरिका के अपने वास्तव्य के दौरान थियोडीसिया कारपेंटर के साथ ही रही।
अमेरिका में थोर्नबोर्न नामक एक डॉक्टर कपल ने आनंदीबाई को विमेंस मेडिकल कॉलेज ऑफ़ पेन्सिलवेनिया में अप्लाई करने की सलाह दी। पेन्सिलवेनिया का यह मेडिकल कॉलेज विश्व का केवल दूसरा ऐसा कॉलेज था जो औरतों के लिया बना था। वहां की डीन रेचल बॉडले ने आनंदीबाई की अर्जी मंजूर की और १९ वर्ष की आयु में आनंदीबाई गोपालराव जोशी की मेडिकल शिक्षा का आरंभ हुआ।
हालाँकि, आनंदीबाई जोशी अपने जीवन-निर्णयों से विश्वभर के स्त्रीयों की प्रेरणा पात्र बन रही थी लेकिन उनका यह सफ़र मुश्किलों से कम नहीं था। उन्हें अपने पति से तो पूरा समर्थन था लेकिन समाज ने उनके इस निर्णय को आसानी से स्वीकार नहीं किया। अमेरिका जाने से पहले आनंदीबाई ने पश्चिम बंगाल के सेरामपुर कॉलेज के पब्लिक हॉल में एक भाषण दिया जिसमें उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में स्त्रियों की आवश्यकता पर जोर दिया। इस भाषण ने लोगों के मन छु लिया। आखिरकार आनंदीबाई को न केवल समर्थन मिला बल्कि उनकी यात्रा और शिक्षा के लिए भारतभर से आर्थिक सहायता भी मिली।
अमेरिका जाने के पहले से ही आनंदीबाई की तबियत बिगड़ने लगी थी। उन्हें हमेशा थकान, सिरदर्द, बुखार और साँस लेने में कठिनाई की शिकयत रहती थी। अमेरिका पहुँचने पर वहां के ठंडे वातावरण और खानपान के बदलाव ने भी उनकी तबियत पर विपरीत ही परिणाम किया। इसके बावजूद आनंदीबाई अपने ध्येयपूर्ति की राह पर आगे बढती रही। आखिरकार दो वर्षों बाद, १८८६ में उन्हें एमडी की डिग्री से नवाज़ा गया। आनंदीबाई की इस कामयाबी के लिए उन्हें दुनियाभर से शुभकामनयें मिली जिसमें इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया भी थी।
अमेरिका से पाश्चात्य चिकित्सा की डिग्री लेकर भारत लौटी आनंदीबाई जोशी का स्वागत धूमधाम से किया गया। कोल्हापुर में उन्हें अल्बर्ट एडवर्ड हॉस्पिटल के महिला वार्ड का फिजिशियन इन चार्ज बनाया गया। किंतु वर्ष १८८७ में वे टीबी या क्षयरोग से ग्रस्त हुई और उनके २२वें जन्मदिवस के एक महीने पहले ही २६ फरवरी १८८७ में इस दुनिया से विदा हुई।
आनंदीबाई जोशी ने अपनी मेहनत और लगन से वो कर दिखाया जो उस समय के लिए लगभग नामुमकिन कार्य था। आज हम हर प्रकार की टेक्नोलॉजी से घिरे हुए है, कोरोनावायरस ने दुनिया में जितना हडकंप मचाया उतना ही सबको करीब भी लाया है। आज आप अपने घर में बैठे-बैठे हर प्रकार की शिक्षा, हर प्रकार का ट्रेनिंग ले सकते है। इतना ही नहीं तो कई जानेमाने इंस्टिट्यूट उनके कोर्स मुफ्त में भी उपलब्ध कर रहे है।
तो, आईएं आज आनंदीबाई की १३४वीं पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए अपने सपनों का पीछा न छोड़ने का इरादा करें।
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
निज हाथों से हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम आगे बढाकर चलना होगा...
टीम fikarnot नमन करती है भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदीबाई गोपालराव जोशी के शौर्य और कर्तृत्व को...