दुष्यंत कुमार, यह नाम परिचय का मोहताज नहीं हैं। भारत के इतिहास का वह समय था जहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हर ओर उथलपुथल जारी थी। नेता से लेकर आम जनता तक और संतों से लेकर साहित्यकारों तक हर कोई आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दे रहा था। ऐसे में, वर्ष १९३३ में जन्म हुआ दुष्यंत कुमार त्यागी का! उत्तरप्रदेश के बिजनौर जनपद में जन्में दुष्यंत ने दसवीं कक्षा से ही अपनी कलम से ऐसे शब्सदबाण चलाएं की वे आधुनिक हिंदी साहित्य के अद्वितीय साहित्यकारों में गिने जाने लगे। केवल ४४ वर्षों के जीवनकाल में दुष्यंत कुमार ने एक से बढ़कर एक रचनाएं की जिसने हर किसी का दिल लुभाया। उनकी रचनाएं कालजयी है और आज भी अनेकों के जुबान पर हैं। तो आईएं, आज उनके ८७वें जन्मदिवस पार उनके कुछ चुनिंदा कृतियों पर नज़र डाले।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए
आज ये दिवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलानी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
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गड़रिए कितने सुखी हैं।
न वे ऊँचें दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दुसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जायेगा।
जबकि
सारे दल
पानी की तरह शान बहते हैं,
गड़रिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
...भेड़ों को बाड़े में करने के लिए
न सभाएं आयोजित करते हैं
न रैलीयां,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हांके लिए जाते हैं।
गड़रिए कितने सुखी हैं।
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इस नदी की धर में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूंढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वाचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुःख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
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ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।
एक बुढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है।
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।
इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला हिंदुस्तान है।
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
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हालाकिं, दुष्यंत कुमार की 'हो गई है पीर पर्वत-सी' और 'चीथड़ों में हिंदुस्तान' जैसी कविताओं को ज्यादा पसंद किया जाता है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि दुष्यंत कुमार उन कवियों में से हैं जिनका प्रेम काव्य भी मन को गहरई से छूता है .....
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुजरती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड गया जबसे
और ज्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने करीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
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