टू बी ऑर नॉट टू बी? ऑर इज इट बोथ?

    16-Dec-2019   
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जीवन में किसे महत्त्व दें? धन या संतुष्टि? क्या आपके दिमाग में भी ये सवाल उठता है? कभी ऐसी नौकरी मिलती है जिसे करने में मजा आता है, काम, काम नहीं लगता तो कभी ऐसी नौकरी मिलती है जिसमें जितना भी काम करो सिर पर बैठे “बॉस” को उसमें कुछ न कुछ कमी-खामी मिल ही जाती है ऐसे में, मन उलझ ही जाता है न? क्योंकि अक्सर जो काम करने में मज़ा आ रहा है उसमें पैसे उतने नहीं मिलते और जिस काम को करते-करते जान निकल जाती है उसकी सैलरी इतनी अच्छी है कि वो नौकरी छोड़े नहीं छूटती तो आखिर धन और संतुष्टि के बीच का चुनाव कैसे हो? मेरे ख्याल से, कॉलेज के बाद नौकरी शुरू करने पर, ‘यंग इंडिया’ कहे जाने वाले हम जैसों के मन में ये सवाल अक्सर उठता ही है
 

इसी उलझन में पड़ी-पड़ी, मैं कई दिनों से अपने-आप से ही एक द्वंद्व लड रही थी |कुछ हताश, उदास हो गई थी... अपनी “अच्छी सैलरी” मिलने वाली नौकरी से, शाम के समय, घर वापस लौट रही थी तभी रास्ते के एक दृश्य ने, उस दृश्य का हिस्सा बनने की लालसा ने मुझे रोक लिया


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दृश्य था मेले का! बहुत दूर से ही सबसे बड़े वाले झूले की झलक दिखने लगी थी और मन उसके करीब जाने के लिए उतावला हो रहा था जैसे-जैसे करीब पहुंची हर एक संवेदना मेले के अंदर प्रवेश करने के लिए उकसाने लगी सबसे पहले स्वादिष्ट और चटपटे पकवानों की सुगंध ने लालसा जगाई, फिर रंगीन लाइटों ने आँखों को मोह लिया, बच्चों के साथ आए बड़ों में भी मासूम-सा उत्साह देखकर.. बस! रहा न गया और अपने-आप गाडी पार्क कर पैर टिकटघर पर जा पहुंचे
 

फिर क्या था? एक भूखे इंसान के सामने स्वादिष्ट पकवानों से भरी थाली रख दी जाए तो वो थाली पूरी साफ़ न हो, ऐसी अपेक्षा करना बेकार है! ये जानते हुए भी कि कल सुबह जल्दी उठकर नौकरी के लिए निकलना है, मैं खुद को रोक न पाई पहले सबसे बड़े झूले पर गई, फिर छोटे वाले पर, फिर चाट खाकर दुबारा खिलौने जितने के लिए रिंग पर अपना हाथ आज़माया जानकर दुःख हुआ कि इस रिंग की मुझसे दुश्मनी अभी भी बरकरार है, मैं जहाँ चाहती हूँ वह उस नंबर पर कभी नहीं गिरती! कुछ और झूले, भूत बंगले और पूरे मेले से रेल गाडी की सैर... 2-3 घंटे कैसे गुजर गए पता भी नहीं चला

 

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उस रात घर पहुंचकर जब आराम से बैठी तो हाथ अपने-आप डायरी की ओर दौड़े, कलम पकड़ी और बस शुरू! हर एहसास को शब्दों में बांधकर डायरी के पन्नों में कैद कर लिया लेकिन आखिर में कुछ शब्द लिखते-लिखते फिर से वो उदासी आ ही गई मन में ख्याल आया कि काश! इतना उत्साह, ऐसी ख़ुशी हर रोज़ मिल पाती

अगले दिन नौकरी पर पहुंची और वही बॉस की आनाकानी, वही रोज-रोज का काम; लेकिन कुछ अलग था... मन में काम करने का उत्साह तो नहीं था लेकिन हताशा भी नहीं थी इसी मनःस्थिति में जब एक सप्ताह बीत गया, दो सप्ताह हो गए तो सोचा थोड़ी जांच-पड़ताल की जाए कि आखिर हुआ क्या है? पहले कुछ समझ नहीं पाई फिर अपने “सेल्फ-डॉक्टर”, मेरी प्यारी डायरी के पुराने पन्ने पलटकर देखने का मन हुआ और आखिर मुझे मेरे “टू बी ऑर नॉट टू बी” का जवाब मिल गया!

 
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धन आवश्यक है या संतुष्टि?

जवाब मिला – धन तो आवश्यक है ही! घर की जिम्मेदारियां है, खुद के खर्चे है, भविष्य की कुछ खास योजनाएं हैं... और उन योजनाओं में कही भी संन्यास लेने का जरा-सा भी विचार नहीं! इसलिए हर योजना को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता तो होगी ही! लेकिन भविष्य की योजनाओं में इतना गुम होना भी ठीक नहीं की आज को ही नजरंदाज़ कर दूँ

शायद आप अब तक समझ ही गए होंगे कि मैंने डायरी के कौन से पन्ने पढ़े मेले की यादें ताज़ा कर मुझे जिंदगी जीने का कोई परफेक्ट फार्मूला तो नहीं मिला जिंदगी को समझने का कार्यक्रम अभी भी ज़ारी है! लेकिन मुझे बस अपनी हेक्टिक जिंदगी में खुद को रिचार्ज रखने का ‘यूनिक फार्मूला’ मिल गया वो ये कि हालांकि मैं भविष्य में डिज्नीलैंड जाना चाहती हूँ लेकिन उस सपने के लिए सेविंग करते-करते लोकल मेले का मज़ा उठाकर अपने अंदर के बच्चे को जिंदा न रख पाई तो शायद सफ़र का मज़ा किरकिरा होगा

तो, मेरे प्यारे रीडर्स, 2019 ख़त्म होने आया है! जानते है इसका मतलब क्या है? हाँ! बहुत सारे काम निपटाने बाकी है! वो तो है ही, हमेशा ही होते है! लेकिन इसके साथ ही अपने अंदर के बच्चे को ज़िंदा रखने के, खुद को रिचार्ज करने के भी बहुत सारे मौके है! मेला हो, पिकनिक हो या एनिमेटेड मूवी का प्लान हो.. थोड़ा सा समय निकलकर अपने बंधनों से आजाद होने की कोशिश करके देखिएगा, Let Loose and Let go for a koment.. शायद आपको भी अपना ‘यूनिक’ फार्मूला मिल जाएं!!!

मे द फ़ोर्स बी विथ यू!!!

  • श्रुति बी.